75वें जन्मदिन की सरप्राइज़ पार्टी

पत्नी की पति से अपेक्षा होती है कि पति को और कुछ याद रहे या ना रहे विवाह की तारीख और पत्नी का जन्मदिन सदा याद रहना चाहिए। पत्नियों की याददाश्त का आलम यह है कि वे पति को पानी देना भूल सकती हैं पर तारीखें कभी नहीं भूलतीं। बहुत महंगा पड़ता है पति को इन्हें याद रखना और भूल जाना उससे भी अधिक। चंडी बन जाती है पत्नी और उसे याद दिलाने में कि वह चंडी नहीं पत्नी है पति बेचारे की जेब और बैंक दोनों खाली हो जाते हैं। हमारी साली साहिबा की कृपा है कि महीना भर पहले से बिला नागा हर दिन हमें याद दिलाती रहती हैं।

इस वर्ष श्रीमति जी 75 वर्ष पूरे कर रही थीं। साली साहिबा जब भी मिलतीं, दो सवाल करतीं; पहला, “क्या गिफ्ट दे रहे हो दीदी को? और दूसरा, लँच पर दीदी को कहाँ ले जा रहे हो?” आखिरकार झल्ला कर हमने जवाब देना शुरू कर दिया – कुछ नहीं दे रहा, गुड़-चना खिलाऊँगा तुम्हारी दीदी को।

जन्मदिन से दो दिन पहले, दोनों बहनें बर्थडे-शॉपिंग करने निकलीं। साली साहिबा ने शो-रूम से फोन किया, “क्या दिलवा दूँ आपकी तरफ से दीदी को?”

“कुछ नहीं।“ आदत पड़ चुकी थी। यूं भी, हमने चुपके से सरप्राइज़ गिफ्ट ऑर्डर की हुई थी।  

“क्या?”

फोन कान से छ: इंच दूर रख कर बात करते हैं हम साली साहिबा से। फिर भी कान का पर्दा फटते-फटते बचा। साली साहिबा की बड़ी-बड़ी आँखें फैल कर चार गुना हो गई थीं। नहीं, वीडियो कॉल नहीं थी लेकिन आँखें चार गुना फैलाए बिना इतना दम लगा कर चीखना साली साहिबा के लिए मुमकिन नहीं है। उनकी ‘क्या?’ इतनी लम्बी थी कि हम घबराहट में हमारे मुंह से निकल गया, “दिलवा देना, जो पसंद हो उन्हें।“   

शाम को दोनों बहनें चहचहाते हुए घर में घुसीं। उनके पीछे बेचारा ड्राइवर खरीदारी के बोझ के नीचे दबा खड़ा था।

चाय पीते हुए साली साहिबा अचानक बोलीं, “जीज, आप का गुड़-चना ना दीदी खाएगी, ना हम। इसलिए दीदी का बर्थडे मैं मनाऊँगी। परसों है दीदी का बर्थडे। बर्थडे तक लँच और  डिनर मेरे यहाँ होगा।“

वैसे तो अंधे को दो आँखें ही चाहिए होती हैं। श्रीमति जी हमारी तरफ देख रही थीं। उन की आँखों से आग बरस रही थी। हमारी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। थूक सटकते हुए हमने कहा, “नहीं, बर्थडे लँच के लिए हम बाहर चलेंगे। उस दिन डिनर भी हम ही देंगे।   

“कहाँ ले जाओगे गुड़-चना खिलाने?” साली साहिबा खिल्ली उड़ाते हुए बोलीं।  

लाइन लम्बी थी। आत्मसम्मान बाँटते-बाँटते भगवान शायद थक गए थे। हमारी बारी आई तो एक उड़ती सी निगाह हम पर डाल कर झोले में कुछ टटोलने लगे। कुछ देर टटोलने के बाद हाथ बाहर निकला तो चुटकी बंधी हुई थी। करुणा से देखा उन्होंने हमें और चुटकी हमारी हथेली पर खोल दी। इस चुटकी भर आत्मसम्मान को भी साली साहिबा की ठिठोली रास नहीं आई। बेरुखी से बोले, “जहाँ हम चाहेंगे, ले चलेंगे सब को। सवाल कोई नहीं करेगा।“

सन्नाटा छा गया। दहशत थी या हमारी हिम्मत पर हैरत, पता नहीं।  

बर्थडे की सुबह ग्यारह बजे निकलना था। ग्यारह बजे पूछा, “चलें?“

“दो मिनट।“ चेहरे पर फाउंडेशन पोतते हुए श्रीमति जी बोलीं।

आम महिलाओं की फ़ितरत है दो मिनट कह कर दो घण्टे लगाने की। श्रीमति जी आम महिला नहीं हैं। तीन बार ‘बस, दो मिनट’ कहने के एक घण्टे बाद हमारे पास आ कर शोखी से बोलीं, “यहीं बैठे रहोगे क्या? चलना नहीं है?” हमने स्टिरिंग व्हील संभाला और ‘जय श्री राम’ का मौन नारा लगाते हुए चाभी घुमाई।  

हँसते-बोलते जी पी एस वाली लड़की के बताए रास्ते पर चलते हुए मंजिल के करीब पहुँच रहे थे कि पीछे की सीट से साली साहिबा की बुलंद आवाज़ आई, “समझ गई। क्या बात है, जीज! यह तो जानती थी कि गुड़-चना नहीं खिलाओगे पर ऐसा भी नहीं सोच था कि लंच गार्डन ऑफ फाइव सेंसेज़ में कराओगे। हैट्स ऑफ टु यू जीज। मज़ा आ गया।“

हफ्ता भर से हम चुपचाप इन्टरनेट खंगाल रहे थे। 75वी वर्षगाँठ का पर्व सामान्य जगहों पर थोड़े ही मनाया जा सकता है। तारीफों के पुल बांधे हुए थे इन्टरनेट ने गार्डन ऑफ फाइव सेंसेज़ की सुन्दरता के, वहाँ के रेस्टोरेंट और बार वगैरह के। श्रीमति जी की सरप्राइज़ पार्टी यहीं ठीक रहेगी।

पैंतीस रुपया प्रवेश-शुल्क है गार्डन ऑफ फाइव सेंसेज़ का। हमें ऊपर से नीचे तक देखते हुए टिकट क्लर्क ने पूछा, “आप सब सीनियर सिटिज़न हैं?” हमारी ‘हाँ’ सुन कर, मुसकुराते हुए उसने चार टिकट दिए और बोला, “साठ रुपये। सीनियर सिटिज़न के लिए पन्द्रह रुपए।“ साठ रुपए उसके हवाले किए और टिकट फाटक पर तैनात गार्ड के। उसने भी कुछ अजीब निगाहों से हम लोगों को देखा और मुसकुराते हुए टिकट बीच में से फाड़ कर दे दिए।

तबीयत खुश हो गई। इतने अच्छे स्वभाव के कर्मचारी कहाँ मिलते हैं आजकल!

थोड़ा आगे बढ़ कर एहसास हुआ कि हम किसी पाश्चात्य देश में हैं। एक पेड़ के नीचे एक प्रेमी युगल, दिन-दुनिया से बेखबर, प्रेम प्रदर्शन में मगन था। कुछ कदम आगे बढ़े तो देखा कि हम भारत भूमि में ही हैं। एक पेड़ के नीचे कौपीन धारण किए एक महात्मा जी ध्यानमग्न थे। आश्वस्त हो कर आगे बढ़े तो विभिन्न पेड़ों की आड़ में और झाड़ियों के पीछे, एक नहीं अनेक जोड़ों विभिन्न तरीकों से अपने प्यार का इजहार करते पाया।

हमें तलाश थी एक रेस्टोरेंट की, लेकिन इन जोड़ों को डिस्टर्ब करके कबाब में हड्डी बनना हमें गवारा नहीं था। तभी पानी की बोतलें बेचता एक ठेला दिखा। बोतल पकड़ाते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान थी। इससे पहले कि हम कुछ बोलें, उसने ही एक सवाल हमारी तरफ फेंक दिया, “आप लोग यहाँ क्यों आए हैं?”

अब तक की सारी मुस्कुराहटों का राज़ एकदम खुल गया।

हौले से हमने पूछ ही लिया, “रेस्टोरेंट किस तरफ हैं?”

“रेस्टोरेंट? अब नहीं हैं यहाँ। कई साल पहले बन्द हो चुके हैं। उधर वाले ठेले से नूडल खा सकते हैं आप।“

श्रीमति जी के आग्नेय नेत्रों से छुपते हुए, तीव्र गति से बाहर निकले, गाड़ी स्टार्ट की और कनौट प्लेस का रुख किया। श्रीमति जी की आँखों की अग्नि ‘वोक इन द क्लाउड’ में प्रवेश करने के बाद शान्त हुई, और हमने चैन की साँस ली।  

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