आमलेट और हम

अपने परिवार और मित्र-मँडली में हम अण्डा-मास्टर के नाम से जाने जाते हैं। यह नाम हमें यूँ ही नहीं मिला। अण्डे के व्यंजन बनाने में हमारा कोई सानी नहीं है। और हमारा आमलेट तो हमारे फलते-फूलते विशाल परिवार में हमसे ऊपर की दो और नीचे की दो पीढ़ियों में विश्वप्रसिद्ध था। अण्डे की सफेदी को हम सिर्फ काँटे की मदद से इतना फेंटते थे कि बर्तन उलटा करने पर भी वो गिरता नहीं था। इतना महीन प्याज़, टमाटर, हरी मिर्च, अदरख, हरा धनिया वगैरह काटते थे कि क्या बतायें। आमलेट के तीन फोल्ड करके, हवा में उछाल कर सीधे डाइनिंग टेबल पर रखी प्लेट में पहुँचा कर सबको हैरान कर देते थे। कभी इस शोहरत का खमियाज़ा भुगतना पड़ेगा इसका हमें ज़रा भी इल्म नहीं था।  

पुराने ज़माने में सुहागरात से पहले दूल्हा-दुल्हन को आपस में मिलना तो क्या, एक दूसरे की फोटो तक देखने की मनाही थी। सुहागरात ना हुई, ब्लाइन्ड शो हो गया। हमारे टाइम तक आजकल की तरह शादी से पहले, बल्कि शादी की बात शुरू भी होने से पहले, लड़का-लड़की का एक साथ यूँ खुल्ला घूमना शुरू नहीं हुआ था। लेकिन सगाई से पहले लड़की के घर में लड़का-लड़की को कुछ देर बात करने के लिए अकेला छोड़ा जाने लगा था। कुछ प्रगतिशील परिवारों में तो सगाई के बाद एक-आध बार कोई फिल्म देखना या रेस्टोरेंट में लँच करने की इजाज़त मिलने लगी थी। इसका फ़ायदा उठा कर हम ‘उन्हें’ रॉयल कैफे ले गए। बात-बात में ‘उन्होंने’ बताया कि कुकिंग के नाम पर ‘वो’ ज़ीरो हैं, लेकिन सीख लेंगी। रौब झाड़ने के लिए हमने अपने मशहूर आमलेट का ज़िक्र कर दिया। ‘वो’ खुश हो गईं। बोलीं, “ठीक है, रोज़ सुबह नाश्ता आप ही बनाना।“ मन ही मन अपनी पिछाड़ी को दुलत्ती मार कर बदले में ‘उनसे’ वायदा लिया कि कभी नहीं पूछेंगी कि खाने में क्या बनाना है। दुनिया के मुश्किल से मुश्किल सवाल का जवाब हम दे सकते हैं लेकिन ‘खाने में क्या बनाना है’ सुनते ही बगलें झाँकने लगते हैं। करार के मुताबिक नाश्ते का भार हमने सम्भाल लिया लेकिन श्रीमति जी ने पहले ही दिन पूछ डाला, “दोपहर को भिण्डी बनाऊँ या कद्दू?”

लगने लगा था कि ज़िन्दगी भर नाश्ता बनाना पड़ेगा। पर किस्मत के धनी हैं हम। एक दिन श्रीमति जी ने मुँह बनाते हुए ऐलान किया, “हमसे नहीं खाया जाता रोज-रोज अण्डा।“ अन्धा क्या चाहे, दो आँखें। अपनी खिली हुई बाँछों को छुपाते हुए दुखी सा चेहरा बनाते हुए बोले, “भई हम तो सिर्फ अण्डे बनाना जानते हैं।“ अब हफ्ते में चार-पाँच दिन पोहा, उपमा, चीला, इडली वगैरह श्रीमति जी बनाती हैं और बाकी एक-दो दिन हम बनाते हैं अण्डे।

पैंतालीस वर्ष बीत चुके हैं। हमारे आमलेट के कद्रदान अब दूर-दराज़ चले गए हैं। घर में श्रीमति जी और हम ही रह गए हैं। इसलिए इतनी मेहनत वाला आमलेट की बजाए हम अण्डे के चीले जैसे बनाने लगे हैं।

एक दिन पुत्री एवं पुत्रिवर (पुत्र की पत्नी पुत्रवधू हो सकती है तो पुत्री का पति पुत्रिवर ही होगा ना) ने, जो हमसे दस हज़ार किलोमीटर दूर विदेश में हैं, विवाह मण्डप में रजिस्टर्ड अपनी जॉइन्ट स्टॉक कम्पनी का पहला डिविडेन्ड, दो नाती-रत्न, एनाउन्स किया। श्रीमति जी और हम ये शानदार डिविडेन्ड सीधे कम्पनी के डायरेक्टरों के हाथों प्राप्त करना चाहते थे। पर कोविड ने ऐसा अड़ँगा लगाया कि हम चार-पाँच हफ्ते लेट हो गए। फिर भी, देर आयद, दुरुस्त आयद।

हमारे एक बुज़ुर्ग थे जो कभी कोई काम करते नहीं देखे जाते थे। कोई उन्हें कोई काम करने को कहता भी नहीं था। इसका राज़, जो उन्होंने बताया, ये था कि वो कभी फ़ख्र नहीं करते। उनके मुताबिक जिस काम पर फख्र करो वो बार-बार करना पड़ता है। बात पते की थी पर हम सीख ना पाए। नतीज़तन पुत्री-निवास में सुबह का नाश्ता बनाने का काम बिना हील-हुज्जत के हमें मंजूर करना पड़ा। आमलेट बनाना हमारे बाँए हाथ का खेल रहा है। पर दशकों के रियाज़ से हासिल हुनर में, दो साल रियाज़ ना करने की वजह से, जँग लग गया था। हम बहाना बना सकते थे कि प्याज़ टमाटर आदि मसालों की जगह कद्दूकस किया मोज़रेला चीज़ हमें रास नहीं आया। पर हकीकत ये है कि हम आमलेट बनाना भूल चुके थे। आमलेट को डाइनिंग टेबल पर रखी प्लेट में उछाल कर पहुँचाना तो दूर, अब बिना तोड़े तीन फोल्ड करना भी टेढ़ी खीर लगने लगा था। शायद हमारी उम्र का ख्याल करके पुत्री और पुत्रिवर खुल्ला नहीं हँसे लेकिन एक परफेक्ट आमलेट बना कर हमें शर्मसार कर दिया।   

हार मानना हमारी आदत में नहीं है। सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। बचपन से भीष्म पितामह हमारे आदर्श रहे हैं। उनकी तरह हमने भी प्रतिज्ञा की और परफेक्ट आमलेट बनाने रियाज़ शुरू कर दिया।

“पापा, सीख ही गए आप आमलेट बनाना।“ डेढ़ महीने की कठोर तपस्या के बाद एक दिन सुबह पुत्रिवर से प्रशंसापत्र पा कर लगा हमने गंगा नहा ली।  



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