वे गोरे नवाब

(यह  लेख  टाइम्स  ऑफ  इंडिया   के  1968  के  वार्षिक  अंक  में  प्रकाशित  श्री  आर. पी.  गुप्ता  लिखित    ‘The Nabobs and Their Servants’  पर  आधारित  है.)

कभी  ‘सोने  की  चिड़िया’  कहलाने  वाला  हिन्दुस्तान  विभिन्न  शासकों  की  आपसी  लड़ाई  के  कारण  उस  ईस्ट  इंडिया  कंपनी  के  आधीन  हो  गया  जो  सत्रहवीं  शताब्दी  के  प्रारंभ  में  मुगल  बादशाह  जहाँगीर  की  मेहरबानी  से  यहाँ  व्यापार  करने  आई  थी.  कंपनी  के  आला  अधिकारियों  के  ज़हन  में  कभी  यह  ख़याल  तक  नहीं  आया  होगा  कि  जिस  मुगल  बादशाह  के  दरबार  में  वे  टोपी  उतार,  कॉर्निश  कर,  गिड़गिड़ाते  हुए  यहाँ  व्यापार  करने  की  इजाज़त  माँगते  थे,  मात्र  डेढ़  सौ  साल  में  उनकी  कंपनी  इतनी  शक्तिशाली  हो  जाएगी  कि  वो  उसी  मुगल  बादशाह  के  वंशज  बादशाह  बहादुरशाह  ज़फ़र  को  क़ैद  करके  मरने  के  लिए  रॅंगून  भेज   देंगे.  लेकिन  ऐसा  हुआ  और  कंपनी  जो  व्यापारी  बन  कर  आई  थी  पूरे  हिन्दुस्तान  की  मालिक  बन  बैठी.  1857  के  असफल  स्वाधीनता  संग्राम  के  बाद  हुकूमत  महारानी  विक्टोरिया  के  हाथ  में  चली  गई  और  अगले  नब्बे  सालों  तक  अँग्रेज़ों  ने  हम  पर  राज  किया.

कैसा  रहन-सहन  था  कंपनी  के  अधिकारियों  का  हमारे  देश  में?  विशेषकर  अट्ठारहवीं  और  उन्नीसवीं  शताब्दियों  में  जब  कंपनी  हिन्दुस्तान  में  पैर  जमा  चुकी  थी और  हिन्दुस्तान  की  राजनीति  में  भी  दखल  देने  लगी थी.

कंपनी  के  अधिकारी,  इंग्लैड  में  चाहे  फटे  हाल  रहते  हों,  भारत  आते  ही  नवाब  बन  जाते  थे.  बंबई  में,  अँग्रेज़  बहादुर  के  जहाज़  से  उतरने  से  पहले  ही,  एक  हिन्दुस्तानी  हाजिर  हो  जाता  था  जो  अक्सर  उसके  इंग्लेंड  लौटने  तक  उसके  सभी  कामों  का  जिम्मा  संभालता  था.  उसे  हम,  सुविधा  के  लिए,  ‘मुख्य-सेवक’  कह  सकते  हैं.  अँग्रेज़  बहादुर  की  सेवा  के  लिए  और  भी  अनेक  सेवक  होते  थे.  यहाँ  तक  कि  तीन-चा  सदस्यों  के  परिवार  के  लिए  100-110  सेवक  होना  बड़ी  बात  नहीं  थी.  हिन्दुस्तान  के  यह  गोरे  नवाब  अक्सर  पार्टियाँ  करते  थे  और  सभी  नवाब  अपनी  शान-शौकत, एक  दूसरे  से  अधिक  हिंदुस्तानियों  को  दिखाने  के  लिए,  अपने  नौकरों  को  साथ  ले  जाते  थे.  नौकरों  की  संख्या  इतनी  अधिक  हो  जाती  थी  कि  उनके  लिए  अलग  तंबू  लगाने  पड़ते  थे  और  एक  छोटे-मोटे  गाँव  का  माहौल  बन  जाता  था.  यह  सिलसिला  तब  तक  चलता  रहा  जब  तक  वारेन  हेस्टिंग्स  ने  इस  पर  रोक  लगा  कर  सिर्फ़  अपने  हुक्काबरदार  को  ही  साथ  लेकर   जाने  का  निर्देश  नहीं  दिया.

इन  सभी  सेवकों  का  नियंत्रण  ‘मुख्य-सेवक’  करता  था.  परिवार  में  इसका  स्थान  वही  था  जो  इंग्लैंड  में  बटलर  का  होता  था.  पूरे  घर  की  ज़रूरतें  वही  देखता  था.  अक्सर  वह  बिना  वेतन  के  काम  करता  था. उसकी  आमदनी  का  ज़रिया  था  घर  के  लिए  खरीदे  जाने  वाले  सभी  सामान  पर  ‘दस्तूरी’  (कमीशन)  जो  अधन्ना  (आधा  आना/पुराने  दो  पैसे)  प्रति  रुपया  होता  था.  उसकी  आमदनी  का  दूसरा  साधन  था  खर्चों  का  हिसाब  रखने  का  जटिल  तरीका  जो  अँग्रेज़ों  के  लिए  समझ  पाना  लगभग  असंभव  था.  ज़ाहिर  है  कि  इस  तरह  वह  खर्चों  में  से  एक  अच्छी  ख़ासी  रकम  अपने  लिए  बचा  लेता  था.  इसके  अलावा  ‘मुख्य-सेवक’  ही  अपने  अँग्रेज़  मालिक  के  लिए  स्थानीय  महाजन  से  क़र्ज़  का  इंतज़ाम  करता  था.  अँग्रेज़  अफ़सर  अधिकतर  साधारण  माली  हालत  के  हुआ  करते  थे.  नवाबी  ठाठबाट  से  रहने  के  लिए  उनकी  तनख़्वाह  नाकाफ़ी  होती  थी.  इसलिए  क़र्ज़  लेना  पड़ता  था.  कंपनी  के  अँग्रेज़  अफसरों  को  हिन्दुस्तान  में  तरक्की  जल्दी  मिल  जाती  थी.  तरक्की  के  साथ  तनख्वाह  तो  बढ़ती  ही  थी,  साथ  में  प्रभाव  भी.  इसलिए  ‘मुख्य-सेवक’  को  उनके  लिए  क़र्ज़  का  इंतज़ाम  करना  बहुत  मुश्किल  नहीं  होता  था.  (इस  सेवा  के  बदले  ‘मुख्य-सेवक’  को  महाजन  से  दस्तूरी  भी  मिलती  थी).  अँग्रेज़  अफ़सर  को  क़र्ज़  देने  की  वजह  से  महाजन  का  भी  प्रभाव  बढ़ता   था  जिसके  उसे  बड़े  लाभ  मिलते  थे.  इसलिए  वह  अपने  पैसों  का तकादा  करता  ही  नहीं  था.  यूँ  भी  क़र्ज़  की  अदायगी  होने  पर  ब्याज  की  शक्ल  में  मोटा  मुनाफ़ा  हो  जाता  था.

अँग्रेज़,  खास  तौर  पर  नये  आए  हुए  अँग्रेज़,  स्थानीय  भाषाओं  से  अनभिग्य  होते  थे.  अतः  उन्हें  ज़रूरत  होती  थी  एक  दुभाषिए  की  जो  उनकी  बात  स्थानीय  लोगों  तक  पहुँचा  सके  और  स्थानीय  लोगों  की  बात  अँग्रेज़ों  तक.  इसके  अतिरिक्त  कंपनी  अपने  अधिकारियों  से  अपेक्षा  करती  थी  कि  वे  जल्दी  से  जल्दी  स्थानीय  भाषा  के  साथ-साथ  उस  समय  प्रचलित  काम-काज  की  भाषाएँ  फ़ारसी  व  उर्दू  सीखें.  उन्हें  सिखाने  का  काम  भी  दुभाषिए  ही  करते  थे.

खानसामा  का  अँग्रेज़ों  के  सेवकों  में  एक  महत्वपूर्ण  स्थान  था.  यह  कहना  ग़लत  नहीं  होगा  कि  खानसामा  का  बावरचीखाने  पर  एकछत्र  राज्य  होता  था.  उसके  निर्देशानुसार  ही  अन्य  बावरची  खाना  बनाया  करते  थे. खानसामा  अधिकतर  अपने  अँग्रेज़  मालिक  की  पसंद  के  जैम,  जैली  और  अन्य  अँग्रेज़ी  भोज्य  पदार्थ  ही  बनाता  था.  खानसामा  ही  बावरचीखाने  के  लिए  सामान  खरीदता  था  और,  ‘मुख्य-सेवक’  की  तरह  खर्चे  में  से  थोड़ा  अपने  लिए  बचा  लेता  था.  अधिकतर  अँग्रेज़  परिवार  यह  सब  अनदेखा  करके  अपनी  तबालत  बचा  लेना  बेहतर  समझते  थे.  ख़ानसामा  हमेशा  मुसलमान  होते  थे.  एक  आम  अँग्रेज़  महिला  के  लिए  ख़ानसामा  का  हिसाब  समझ  पाना  उतना  ही  मुश्किल  था  जितना  ‘मुख्य-सेवक’  का.  ख़ानसामा  की  आमदनी  का  यह  भी  एक  ज़रिया  था.   ग़लतियाँ  निकालने  वाली  अँग्रेज़  महिला  ‘किट-किट’  मेमसाहब  कहलाने  लगती  थी,  ख़ानसामा  नौकरी  छोड़  देता  था  और  दूसरा  ख़ानसामा  दुगनी  तनख़्वाह  पर  भी  मिलना  मुश्किल  हो  जाता  था.

खिदमतगार  का  असली  काम  था  अपने  मालिक  के  खाना  खाते  समय  उसके  पीछे  खड़े  रहकर  मालिक  की  हर  छोटी-बड़ी  ज़रूरत  का  ध्यान  रखना.  वैसे,  वक्ते-ज़रूरत,  खिदमतगार  कभी-कभी  खाना  बनाने  में  मदद  कर  देता  था.  लेकिन  परेशानी  की  एक  वजह  थी  कि  मुलमान  खिदमतगार  पोर्क,  अँग्रेज़  बहादुर  के  प्रिय  खानों  में  एक,  को  हाथ  भी  नहीं  लगाता  था.  बाद  में,  वक्त  के  सा थ  कुछ  खितमदगारों  की  सोच  में  बदलाव  आया  और  यह  परेशानी  दूर  हुई.

बावरची  पुर्तगाली,  मुसलमान,  या  नीची  जाति  का  हिंदू  होता  था  (उच्च  जाति  के  हिंदू  किसी  भी  प्रकार  का  माँस  छूते  तक  नहीं  थे).  स्वादिष्ट  खाना  बनाने  के  लिए  आवश्यक  होता  है  पकते  समय  उसको  चखना  ताकि  उसमें  कोई  कमी  न  रह  जाए.  लेकिन  चखने  की  इजाज़त  न  मुसलमान  बावरची  को  थी  न  हिंदू  को.  सिर्फ़  पुर्तगाली  बावरची  ही  खाना  चख  सकता  था.  हैरानी  की  बात  है  न  कि  किस  प्रकार  बिना  चखे  भी  ये  हिंदू  और  मुसलमान  बावरची  अपने  अँग्रेज़  मालिकों  के  लिए  स्वादिष्ट  व्यंजन  बना  लेते  थे!

मशालची  का  काम  था  गोरे  साहब  की  पालकी  का  रास्ता  रोशन  करने  के  लिए  उसके  आगे-आगे  मशाल  लेकर  दौड़ना.  प  क्योंकि  गोरा  साहब  हर  वक्त  तो  पालकी  में  होता  नहीं  था.  इसलिए  बाकी  समय  मशालची  खिदमतगार  के  असिस्टेंट  की  हैसियत  से  काम  करता  था.  बाद  में  जब  रेलगाड़ी  चलने  लगी  और  सड़कों  को  गैस  की  लालटेनों  से  रोशन  किया  जाने  लगा,  धीरे-धीरे  उन्नीसवीं  शताब्दी  में   मशालची  लुप्त  हो  गये.

मशालची  की  तरह  ही  आबदार  भी,  जिनका  काम  शोरे  की  मदद  से  पानी  और  वाइन  को  ठंडा  रखना  होता  था,  उन्नीसवीं  शताब्दी  के  मध्य  तक,  जब  बर्फ  का  प्रचलन  आम  हो  गया,  ज़रूरत  न  रहने  की  वजह से  बेरोज़गार  हो  गये.

उन्नीसवीं  सदी  में  बेरोज़गारों  की  श्रेणी  में  हुक्काबरदार  भी  आ  गये.  इंग्लेंड  से  आए  गोरे  नवाबों  और  उनकी  बेगमों  को  हिन्दुस्तानी  हुक्के  ने  अपनी  गिरफ़्त  में  ले  लिया  था.  हुक्के  की  ऐसी  लत  पड़ी  कि  उसके  रखरखाव  के  लिए  उन्हें  नौकर  रखने  पड़े  जो  हुक्काबरदार  कहलाए.  सिगरेट  वग़ैरह  आ  जाने  की  वजह  से  हुक्के  का  प्रचलन  कम  हो  गया  और  हुक्काबरदारों  की  ज़रूरत  नहीं  रही.

दरअसल  उन्नीसवीं  सदी  में  इतनी  नई-नई  चीज़ें  आईं  कि  बहुत  से  रोज़गार  ख़त्म  हो  गये.  इसी  लिस्ट  में   पंखा  खींचने  वाले  का  नाम  आता  है.  साहब  और  मेमसाहब  लोगों  को  गर्मी  अधिक  न  लगे  इसलिए  कमरे  की  छत  से  कपड़े  का  बड़ा  सा  पंखा  लटका  रहता  था.  कमरे  के  बाहर  भीषण  गर्मी  में  जलता  हुआ  पसीने  में  तर  एक  हिन्दुस्तानी  रस्सी  के  सहारे  पंखा  हिलाता  रहता  था.  लेकिन  बिजली  के  पंखों  ने  उसकी  भी  नौकरी  छीन  ली.

पी. जी.  वुडहाउस  की  कहानियों   में  जो  किरदार  जीव्स  का  है  वही  इन  गोरे  नवाबों  के  घर  में  ‘सरदार’  का  होता  था.  अपने  मालिक  की  व्यक्तिगत  ज़रूरतें,  जैसे  उसकी  वॉर्ड-रोब  संभालना,  हर  रोज़  कपड़े  पहनाना  आदि  की  ज़िम्मेदारी  सरदार  की  होती  थी.  लेकिन  मालिक  के  पैर  धोना,  कमरों  की  सफाई,  झाड़-पोंछ  वग़ैरह  वह  अपने  मातहतों  से  करवाता  था.  हाँ,  खुद  उस  पर  घर  के  कीमती  काँटे,  छुरी,  चम्मच  व  अन्य  मूल्यवान  वस्तुओं  की  भी  ज़िम्मेदारी  होती  थी.

गोरे  नवाब  कभी  खुद  नकदी  लेकर  नहीं  चलते  थे.  यह  काम  था  खर्चबरदारों  का.  उन  दिनों  हिन्दुस्तान  में  अलग-अलग  राजाओं  और  रजवाड़ों  के  अपने  सिक्के  चलते  थे  जो  गोरों  की  समझ  से  बाहर  थे.  इसलिए  खर्चबरदार,  जो  हिन्दुस्तानी  होने  के  नाते  इन  सिक्कों  से  वाकिफ़  था,  का  होना  बहुत  ज़रूरी  था.

हर  गोरे  नवाब  के  फाटक  पर  एक  दरवान  खड़ा  रहता  था  जो  अधिकतर  एक  हिंदू  पहलवान  होता  था.  खाली  समय  में  वर्ज़िश  करके  अपने  शरीर  को  सुगठित  और  शक्तिशाली  बनाए  रखने  में  व्यस्त  रहता  था  दरवान.

तब  एक  जगह  से  दूसरी  जगह  जाने  के  लिए  पालकी  का  प्रचलन  था  और  पालकी  उठाने  के  लिए  आदमी  तो  चाहिए  ही  होते  हैं.  इस  काम  के  लिए  छ:  कहार  रखे  जाते  थे  और  उनके  ऊपर  एक  ‘जमादार’  जो  पालकी  के  साथ-साथ  चलता  था  कि  कहार  कोताही  ना  करें.  एक  ‘सोंटबरदार’  भी  होता  था  जिसका  काम  था  एक  सोंटा  (डंडा)  लेकर  पालकी  के  सामने  चलना.

घर  के  नौकरों  में  एक  चोबदार  होता  था  जो  एक  पाँच  हाथ  लंबी  लाठी  साथ  रखता  था.  चोबदार  इधर  से  उधर  संदेश  ले  जाता  था  और  मिलने  आने  वालों  की  सूचना  देता  था.  वैसे  संदेश  ले  जाना  और  लाना  हरकारों  और  प्यादों  का  काम  था.  दोनों  में  फ़र्क  सिर्फ़  यह  था  कि  हरकारा  हाथ  में  डंडा  लेकर  चलता  था  और  प्यादा  बिना  डंडा  लिए.

घोड़ागाड़ी  के  आगमन  के  साथ  पालकियाँ  अपने  जमादारों,  कहारों  और  बाकी  कर्मचारियों  के  साथ  विदा  हो  गयीं.  लेकिन  उनकी  जगह  घोड़ागाड़ी  लेकर  आईं  अपने  साथ  कोचवान,  साईस,  चाबुकसवार,  घसियारे  वग़ैरह  और  गोरे  नवाबों  की  नौकरों  की  ज़रूरत  बरकरार  रही.

नदी  या  झील  के  पास  रहने  वाले  गोरे  नवाब  बजरा  भी  रखते  थे.  ज़ाहिर  है  कि  बजरा  बिना  माझी-मल्लाहों  के  चल  नहीं  सकता.  अत:  माझी-मल्लाह  भी  रखे  गये.

एक  भिश्ती  भी  रखा  जाता  था  जो  नज़दीक  की  नदी  या  झील  या  फिर  कुएँ  से  बकरे/भेड़  की  खाल  से  बनी  मशक  में  पानी  भरकर  लाता  था.

‘डोरिया’  नाम  था  गोरा  साहिब  के  कुत्तों  के  रखवाले  का . ‘डोरिया’  शब्द  बना  ‘डोरी’  से,  रस्सी  जिससे  कुत्ते  को  बाँधा  जाता  है.

अमूमन  दर्जी,  धोबी,  नाई,  भेड़वाला,  मेहतर  और  मेहतरानी  वग़ैरह  पार्ट-टाइम  रखे  जाते  थे,  फिर  भी  ‘कोई है?’  टाइप  के  गोरे  इन्हें  फुल-टाइम  रख  लेते  थे.

उन्नीसवीं  शताब्दी  के  मध्य  तक  (जब  महारानी  विक्टोरिया  ने  कंपनी  से  लेकर  हिन्दुस्तान  पर  अपना  राज  शुरू  किया)  अँग्रेज़  अधिकारी  अधिकतर  क़र्ज़  में  डूबे  रहे.  फिर  भी  किसी  महाजन  ने  तकादा  करने  की  जुर्रत  नहीं  की.

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