सुहाना सफ़र?!!!!!

मेरे बहनोई, डॉक्टर भटनागर, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सीमा पर, चंबल के बीहड़ों में, स्थित एक छोटे से गाँव में सरकारी अस्पताल में नियुक्त थे. कुछ समय पहले ही मेरी बहन सुयोग का विवाह उनसे हुआ था और मुझे बहन को वापस उदयपुर लाने की ज़िम्मेदारी दी गई. दिसंबर १९६० की कड़ाके के सर्दी में मैं, बताए गये रास्ते से, जो कुछ टेढ़ा ही था, चला. उदयपुर से ट्रेन से सुबह सुबह नसीराबाद पहुँचा. नसीराबाद से कोटा जाने के लिए बस में बैठा. इत्तफाक से बस में मेरा एक दोस्त मिल गया जो अपने घर कोटा जा रहा था. यह भी इत्तफाक ही था कि उसने मुझे अपना कोटा का पता बता दिया जो आगे चल कर बहुत काम आने वाला था.

कोटा से फिर ट्रेन में बैठा और करीब ३ बजे बाराँ पहुँचा जहाँ से बस द्वारा अपने गंतव्य स्थान छीपाबड़ोद जाना था. स्टेशन के बाहर से ही बस चलती थी. नियत समय पर बस चली. करीब १ घंटे बाद एक जगह, जहाँ दो तीन छोटी छोटी दुकानें थीं, बस रुक गयी. कंडक्टर ने घोषणा की कि ब्रेक खराब हो जाने के कारण बस आगे नहीं जाएगी. उस जगह तक का किराया काट कर बाकी पैसे लौटा दिए गये. पता चला कि अगली बस अगले दिन ही आएगी. लेकिन बाराँ वापस जाने के लिए बस दो घंटे में मिल जाएगी.

एक बार फिर सिद्ध हुआ कि सिख बहुत उद्धयमी होते हैं. छोटी छोटी दुकानों में से एक में एक सरदार जी आमलेट, डबलरोटी ओर चाय बना रहे थे. वही खा कर बस की इंतज़ार करने लगा. बाराँ पहुँच कर, रात स्टेशन पर बिताने की तैयारी कर रहा था कि पता चला कि कुछ दूर के एक स्टेशन पर छीपाबड़ोद जाने वाली एक बस मिलती है जो ट्रेन का इंतज़ार करती है. अंधे को दो आँखें ही तो चाहिए थीं. अगली गाड़ी से वहाँ पहुँचा. बस वाकई में खड़ी थी. रात के अंधेरे में यह तो पता नहीं चल पाया कि बस सड़क पर चल रही है या किसी सूखी नदी के पत्थरों पर लेकिन फिर भी छीपाबड़ोद पहुँच ही गया. एक आदमी भी मिल गया जो डॉक्टर साहिब के घर तक मेरा सामान ले चला. मन में लड्डू फोड़ते हुये कि देर हुई तो हुई, बहन के घर खाना अच्छा मिलेगा, चल पड़ा. पर नियति को यह मंज़ूर न था. जिस महिला ने दरवाज़ा खोला वह मेरी बहन नहीं थीं. पता चला कि डॉक्टर साहिब भी, जो उस समय घर पर नहीं थे, मेरे बहनोई नहीं कोई और थे.

गाँव में एक टूरिंग टॉकी आई हुई थी. डॉक्टर साहिब वहाँ फिल्म देख रहे थे. वहीं पर उनसे मुलाकात की. उन्होने बताया कि वो ६ साल से उस गाँव में नियुक्त थे और वहाँ कभी कोई डॉक्टर भटनागर थे ही नहीं. मेरे तो पैरों तले की ज़मीन खिसक गई. दिसंबर की भीषण सर्दी. देर रात. एक छोटा सा अजनबी गाँव जहाँ, होटल तो दूर, धर्मशाला तक न थी. न सिर छुपाने के लिए कोई जगह न भूख शांत करने का कोई साधन. ठगा सा खड़ा था. तभी डॉक्टर साहिब ने सुझाया कि सरकारी रेस्ट हाउस में मलेरिया की पार्टी ठहरी है. वो शायद सोने की जगह दे दें. डूबते को तिनके का सहारा. राम नाम जपते हुए वहाँ पहुँचा. रात के अंधेरे में वो टूटा फूटा खंडहर भूत बंगले जैसा दिख रहा था. हिम्मत करके अंदर गया. किस्मत अच्छी थी. मलेरिया पार्टी के कुछ लोग, देर हो जाने के कारण, वापस नहीं आए थे. मुझे एक कोठरी, जिसमें एक टूटी सी चारपाई थी, मिल गई. पूछने पर बची हुई एक रोटी मिली जो मैंने नमक से खा कर पानी पी लिया.
न जाने क्या बजा था. घोर अंधेरा. अचानक एक लड़की की चीख सुनी, “बचाओ, बचाओ”. डर के मारे दम निकल गया. क्या भूत हैं? भूत बंगले में भूत ही तो होंगे! नहीं तो क्या डाकू आ गये? चंबल के बीहड़ों में डाकू ही हो सकते हैं. फिर ध्यान आया कि टूरिंग टॉकी में ‘मीनार’ फिल्म चल रही थी और चिल्लाने वाली मीनार में क़ैद मीना कुमारी थी. नींद तो क्या आनी थी? कुछ जागते कुछ सोते, किसी तरह रात बिताई और सुबह होते ही, बिना अन्न, अन्न तो वैसे भी था ही नहीं, जल ग्रहण किए बस में बैठ कर बाराँ, और बाराँ से कोटा पहुँच कर अपने मित्र के घर चला गया.

कोटा से उदयपुर तार भेजा जिसका उत्तर तीन दिन बाद आया, “GO SHIVPUR-BARODA DISTT MORENA”. बड़ी कोफ़्त हुई. जाना था शिवपुर-बड़ोदा, ज़िला मुरेना, मध्यप्रदेश और मैं, ग़लत निर्देश के कारण, पहुँच गया था छीपाबड़ोद, ज़िला बाराँ, राजस्थान. मज़े की बात यह कि दोनों जगह के लिए बाराँ से ही जाना पड़ता था. खैर, बाराँ से फिर बस में बैठा और रौब से बोला, “एक टिकट शिवपुर-बड़ोदा का”. अजीब सी निगाहों से कंडक्टर ने मुझे देखा. पूछा, “शिवपुर का या बड़ोदा का?” मुझे काटो तो खून नहीं. अब क्या करूँ? फिर मुसीबत. मैंने पूछा, “पहले कौन सी जगह आती है?” उत्तर मिला, “बड़ोदा”. फिर पूछा, “बड़ी जगह कौनसी है जहाँ रहने के लिए होटल मिल सके?” उत्तर मिला, “शिवपुर”. शिवपुर का टिकट ले कर बस में बैठ गया.

न बस खराब हुई न ब्रेक फेल हुए और बड़ोदा आ गया. मुँह बाहर निकल कर पास खड़े एक व्यक्ति से मैंने पूछा, “क्या यहाँ डॉक्टर भटनागर होते हैं?” आशा के विपरीत उत्तर मिला, “हाँ”. बाँछें खिल गईं. शीघ्रता से सामान उतारा और डॉक्टर साहिब के घर चल पड़ा. थोड़ी दूर पहुँचे तो कुछ लोग हाथों में लाठियाँ, तलवार, भाले वग़ैरह लेकर चिल्लाते हुए दौड़ते नज़र आए. कुछ देर पहले ही एक सरकारी इंजीनियर को डाकू उठा कर ले गये थे. सहमा हुआ डॉक्टर साहब के घर पहुँचा. जान में जान तब आई जब बहन दिखीं. यकीन हुआ कि मैं वास्तव में सही जगह पहुँच गया हूँ.

वापसी में, डॉक्टर साहिब की सलाह न मानते हुए, यह दलील देते हुए कि हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना ठीक होता है, बहन और मैं तड़के ही बड़ोदा से बस में बैठ गये. निर्विघ्न बाराँ पहुँच कर कई घंटे कोटा की गाड़ी का इंतज़ार किया. इस बार बस से नसीराबाद न जाकर ट्रेन से रतलाम होते हुए सही सलामत हम उदयपुर पहुँच गयेi

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